कहानी कारवां फिल्म की शूटिंग के दौरान की है। महाबलेश्वर और पंचगनी में इस फिल्म की काफी शूटिंग हुई थी। किस्सा पंचगनी के शूट के दौरान है। वहां मौजूद अंजुमन इस्लाम कॉलेज के बाहर कारवां फिल्म के एक गीत की शूटिंग चल रही थी। अक्सर दोपहर के वक्त शूटिंग रोक दी जाती थी। क्योंकि दोपहर का वक्त आउटडोर शूट के हिसाब से मुफीद नहीं होता। फिल्म यूनिट उस वक्त में लंच ब्रेक कर लेती है।
एक दिन जितेंद्र अपने साथ जूनियर महमूद(जो फिल्म में उनके छोटे भाई बने थे) व कोरियोग्राफर सुरेश भट्ट को पास स्थित एक गरीब और बूढ़ी महिला की झोपड़ी में ले गए। लगभग 70 साल की उम्र की वो महिला जितेंद्र को देखकर कुछ ऐसे खुश हुई मानो उसका अपना बेटा उससे मिलने आया हो। जितेंद्र उस महिला से गले मिले।
ये नज़ारा देखकर जूनियर महमूद और सुरेश भट्ट बहुत हैरान थे। पता चला कि जितेंद्र ने अपने आने की खबर पहले ही उस बूढ़ी महिला तक पहुंचा दी थी। महिला ने घर में बाजरे की रोटी और लहसुन व लाल मिर्ट की चटनी तैयार कर रखी थी। जितेंद्र, जूनियर महमूद व सुरेश भट्ट ने वहीं झोपड़ी में बैठकर बाजरे की रोटी लहसुन-मिर्च की चटनी के साथ खाई। और फिर चलते वक्त जितेंद्र ने महिला के हाथ में सौ का नोट रखा।
उस दौर में सौ का बड़ा वाला नोट चला करता था। लेकिन उस बूढ़ी महिला ने वो नोट लेने से इन्कार क दिया। उल्टे वो जितेंद्र को डांटने लगी। साथियों ये वो ज़माना था जब सौ रुएए कम से कम आज के एक हज़ार रुपए के बराबर तो होंगे ही। ज़्यादा भी हो सकते हैं।
उस दिन जितेंद्र जी ने साबित किया था कि कोई शख्स फिल्म स्टार बनने के बाद भी अपने भीतर के आम इंसान को कुछ वक्त तक के लिए ही सही, ज़िंदा तो रख सकता है। ये अलग बात है कि बहुत ज़्यादा मशहूर होने के बाद फिल्मी सितारों का चाहकर भी आम इंसान की तरह जीवन बिताना नाममुमकिन होता है।